श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन नागों का पूजन किये जाने की परम्परा है। इस दिन व्रत करके सांपों को दूध पिलाया जाता है। गरूड़ पुराण में सुझाव दिया गया है कि नाग पंचमी के दिन घर के दोनों बगल में नाग की मूर्ति बनाकर पूजन किया जाए। पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं। अर्थात् शेषनाग आदि सर्पराजाओं का पूजन पंचमी को होना चाहिए। हिन्दू धर्म में नागों को देवताओं के तुल्य माना गया है। भगवान विष्णु शेष शैय्या पर विराजमान हैं तो शिवजी के तो आभूषण ही नाग हैं।
पूजन विधि
प्रतीक स्वरूप गोबर से दीवार पर नाग का जोड़ा बनाया जाता है और उन्हें सिंदूर, अक्षत लगाया जाता है, पुष्प अर्पित किये जाते हैं तथा फल और नैवेद्य का प्रसाद चढ़ाया जाता है उसके बाद दीप जलाकर उनकी पूजा की जाती है और प्रार्थना की जाती है कि हे नाग देवता कृपया हमारे परिवार की रक्षा करें और कष्टों से मुक्ति दिलाएं। नागपंचमी के दिन एक रस्सी में सात गांठें लगाकर और उस रस्सी को सांप मानकर लकड़ी के एक पट्टे पर रखा जाता है। हल्दी−रोली, चावल और फूल आदि चढ़ाकर नाग देवता की पूजा करने के बाद कच्चा दूध, घी और चीनी मिलाकर इस रस्सी को सर्प देवता को अर्पित किया जाना चाहिए। इस दौरान पूजन के समय सर्प देवता की स्तुति इस श्लोक से करनी चाहिए− ‘अनन्तम्, वासुकि, शेषम्, पद्मनाभम्, चकम्बलम् कर्कोतकम् तक्षकम्। पूजन के बाद नाग देवता की आरती जरूर उतारें।
बड़े शहरों में इस पर्व के बारे में लोग भले ही ज्यादा नहीं जानते हों लेकिन छोटे शहरों और गांवों में आज भी लोग नाग पंचमी के दिन श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं और कथा सुनते हैं। नाग पंचमी पर्व से जुड़ी कुछ प्रचलित कथाएं इस प्रकार हैं−
− किसी राज्य में एक किसान रहता था। किसान के दो पुत्र व एक पुत्री थी। एक दिन हल चलाते समय सांप के तीन बच्चे कुचलकर मर गये। नागिन पहले तो विलाप करती रही फिर संतान के हत्यारे से बदला लेने के लिए चल दी। रात्रि में नागिन ने किसान, उसकी पत्नी व दोनों लड़कों को डस लिया। अगले दिन नागिन किसान की पुत्री को डसने के लिए पहुंची तो किसान की पुत्री ने नागिन के सामने दूध से भरा कटोरा रखा और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। नागिन ने प्रसन्न होकर उसके माता−पिता व दोनों भाइयों को जीवित कर दिया। उस दिन श्रावण शुक्ला पंचमी थी। तब से नागों के प्रकोप से बचने के लिए इस दिन नागों की पूजा की जाती है।
– एक ब्राह्मण की सात पुत्रवधुएं थीं। सावन मास आते ही छह बहुएं तो भाई के साथ मायके चली गईं लेकिन सातवीं बहू का कोई भाई नहीं था सो वह अपने ससुराल में ही रही। वह भाई के न होने से काफी दुरूखी थी। उसने एक दिन पृथ्वी को धारण करने वाले शेषनाग को भाई के रूप में याद किया। शेषनाग ने जब वह करुणामयी आवाज सुनी तो वह द्रवित हो गये और एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धर कर आए और उसे लेकर चल दिये। जब उन्होंने कुछ रास्ता तय कर लिया तो वह अपने असली रूप में आ गये और अपनी मुंहबोली बहन को अपने फन पर बिठाकर अपने लोक को चले गये।
उनकी मुंहबोली बहन नागलोक में आनंद के साथ समय व्यतीत करने लगी। शेषनाग के कुल में बहुत से नाग बच्चों ने जन्म लिया। उन नाग बच्चों को सब जगह विचरण करते देख शेष−नागरानी ने अपने पति की मुंहबोली बहन को एक दीपक प्रदान किया और बताया कि यह चमत्कारी दीपक है इसकी रोशनी में घोर अंधेरे में भी सब कुछ देखा जा सकता है। बहन ने दीपक रख लिया लेकिन एक दिन असावधानीवश उसके हाथ से वह दीपक नीचे गिर गया जोकि वहां विचर रहे कुछ नाग बच्चों पर गिर गया और उनकी पूंछ थोड़ी सी कट गई। इस घटना के बाद बहन अपने ससुराल लौट आई।
जब अगला सावन आया और बाकी छह बहुएं अपने−अपने मायके से आए बुलावे के चलते वहां चली गईं और सातवीं बहू फिर से अपने मुंहबोले भाई की राह ताकने लगी। उसने दीवार पर नाग देवता की तस्वीर उकेरी और उनकी पूजा करने लगी। दूसरी ओर जिन नाग बालकों की पूंछ कटी थी वह उससे बदला लेने के लिए आ रहे थे। लेकिन जब वह उसके घर पहुंचे और उसे अपनी पूजा करते हुए पाया तो उनका सारा क्रोध शांत हो गया। उन्होंने अपने पिता की मुंहबोली बहन के हाथों से प्रसाद ग्रहण किया और उसे आशीर्वाद दिया कि उसे नागकुल से अब कोई डर नहीं रहेगा। नाग बालकों ने अपनी बुआ को मणियों की एक माला भी दी और कहा कि आज सावन की पंचमी के दिन जो भी महिला हमें भाई के रूप में पूजेगी हम उनकी रक्षा करेंगे।