श्रद्धांजलि:अलविदा! पुरूषोत्तम असनोड़ा जी

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श्रद्धांजलि:अलविदा! पुरूषोत्तम असनोड़ा जी

साभार:गौरव नौड़ियाल 

वो एक शानदार शाम थी। …और ये एक दुख:द शाम है! हां, ये एक दुख:द शाम ही है। मौत की सूचनाएं स्मृतियों को वापस पटल पर बिखेर देती हैं। उत्तराखंड के सबसे चर्चित और सबसे उपेक्षित कस्बे गैरसैण में पिछले कई दसकों से लोगों की इकलौती और मजबूत आवाज रहे पुरषोत्तम असनोड़ा साहब का यूं चले जाना, मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर परेशान करने वाला सच है। मुझे उनके साथ सिर्फ एक शाम गुजारने का वक्त मिला था और ये शाम आश्वस्त करने वाली थी कि जब तक असनोड़ा साहब जैसे लोग पहाड़ों पर हैं, लोगों की आवाज को दबाया नहीं जा सकेगा। असनोड़ा साहब उत्तराखंड के जनांदोलनों में भागीदारी करने में आगे रहे। वो गैरसैण के प्रतिनिधि पत्रकार थे। पहाड़ों के पुराने खबरनवीसों में वो एक थे।पिछले साल जब मैं और शीतल बाइक के सफर पर निकले थे, तब लौटते हुए हमें एक शाम असनोड़ा साहब के घर पर गुजारने का मौका मिला था। हम लोग तब तक एक तरह से अपरिचित थे। मैंने जरूर उनके कुछ लेख इससे पहले अखबारों और स्थानीय पत्रिकाओं में पढ़े थे, लेकिन मैं उनके लिए तो कम से कम पूरी तरह से अपरिचित ही था। उनके पत्रकार भाई का एक परिचित, जो अपनी वाइफ के साथ बाइक से पिछले 60 दिनों से सफर करने के बाद गैरसैण पहुंचा था। पहाड़ों पर हुई बारिश के बाद उस सर्द शाम उन्होंने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया। बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो पता चला उनकी एक बेटी की शादी मीडिया के ही मेरे एक दोस्त से हुई है! उनकी दूसरी बेटी जो कि खुद एक पत्रकार हैं, उनके मैगजीन निकालने और उसे जारी रखने के संघर्ष को लेकर हमारी चर्चा हुई। खबरों के दम तोड़ने, संपादकों के घुटने टेकने और स्टेट के सूचनाओं पर हावी होने की चिंताएं उनकी बातचीत का मुख्य विषय था। इस बीच वो अपने हैदराबाद के किस्से सुनाते….समंदर और पहाड़ों की यात्राओं के किस्से।पूरी शाम और फिर रात के खाने के बाद तक किस्सों का एक अंतहीन दौर चला… चीजें इतनी करीब आती गई, इतने पास से गुजरते हुए महसूस हो रही थी कि अब हम दोनों ही अपरिचित नहीं रह गए थे। असनोडा साहब के पास राजधानी के नाम पर गैरसैण में हुए घपले-घोटालों से जूझने का लंबा अनुभव तो था ही, उनके पास ऐसे दर्जनों मामले थे, जो सरकार को संदिग्ध बनाने के लिए पर्याप्त थे। इनमें जमीनों की खरीद पर पाबंदी लगाने जैसे मामलों समेत ‘शो पीस’ बने हुए विधानसभा भवन और लोगों की नाउम्मीदी के किस्से थे। उत्तराखंड आंदोलन के दौर का संघर्ष था और उनके अंत में खीझकर अखबार छोड़ने का किस्सा। संयोग से हम दोनों ही एक ही संपादक के मातहत हुआ करते थे…असनोडा साहब के पास पहाड़ों के किस्सों का अंतहीन जखीरा था… और इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात थी उनकी छोटी सी लाइब्रेरी। उनकी लाइब्रेरी मेरे लिए किसी कौतुहल से कम नहीं थी! इस दौर में जबकि लोग किताबों से दूर हो रहे हैं, गैरसैंण जैसे छोटे से पहाड़ी कस्बे में मक्सिम गोर्की, राजेन्द्र यादव, प्रेमचंद, रसूल हमजातोव, मंटो जैसे लेखकों से गुलजार छोटी सी लाइब्रेरी का घर में मिल जाना किसी सुखद अनुभव से कम नहीं था। वो एक जिम्मेदार और जागरुक नागरिक थे, जो अपनी जमीन के लिए ताउम्र जूझते रहे। उसी शाम ये तस्वीर उतारी थी। अगली सुबह जब हम गैरसैण छोड़ रहे थे, तब उनके शब्द थे… ‘अगली बार जब यहां से गुजरोगे तो घर का पता पूछने की जरूरत तो नहीं रहेगी न! जिंदगी चलती रहती है, हम मशरूफ हो जाते हैं, अपने-अपने कामों में और फिर अचानक ऐसी सूचना आती है जो आपको अफसोस और दु:ख से भर देती है! एक दिलचस्प शख्सियत और जागरुक नागरिक का चले जाना कष्टकारी है, वो भी ऐसे वक्त में जब नागरिक या तो अपना नागरिक धर्म भूल रहे हैं या फिर उनके लिए अब नागरिक धर्म के कोई मायने नहीं रह गए। गैरसैण की प्रतिनिधि आवाज अब हमेशा के लिए चुप हो गई है, इससे पहले कि इस मशाल को कोई और थामे, हमें अपने इस अद्भुत नागरिक के कार्यकाल को पलटकर देखना होगा और इतनी चेतना विकसित करनी होगी कि लिखने-पढ़ने वाले असनोड़ा साहब जैसे लोग ही जनांदोलनों को खाद-पानी देकर बहरी सरकारों के बीच हलचल पैदा करते हैं। वो ताउम्र संजीदा और जागरुक नागरिक रहे… अपनी जड़ों के करीब रही बगावती आवाज। आप कभी खामोश पहाड़ी कस्बे गैरसैंण से गुजरें तो असनोड़ा साहब को याद कर लीजिएगा…! ये वाकई एक दुख:द शाम ही है…. अलविदा असनोड़ा साहब !

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