गणेश खुगशाल ‘गणी’
विलक्षण, बहुमुखी, प्रखर मेधा के धनी !
नरेन्द्र कठैत,वरिष्ठ साहित्यकार:
अग्नि, हवा और पानी- इन तीन ईश्वर प्रदत्त तत्वों के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। चाहे हम मंगल तक की दौड़ लगा लें या दूर प्लेटो तक की। किंतु जहां जीव जगत के लिए ये तत्व हितकर हैं वहीं इनकी अति भी अहितकर सिद्ध हुई। इसलिए ये तीन तत्व हमारे लिए अमरतत्व भी हैं और गरल भी। किंतु जिसने इन तीन तत्वों में स्वयं को ढालने की आत्मशक्ति विकसित कर ली वही सच्चा साधक है और लोकप्रिय भी। सच्चे साधक और लोकप्रियता की इसी श्रेणी में आते हैं विलक्षण, बहुमुखी, प्रखर मेधा के धनी, मातृभाषा प्रेमी भ्राता गणेश खुगशाल ‘गणी’!गणी दा की गिनती जनप्रिय अथवा लोकप्रिय महानुभावों की श्रेणी में यूं ही नहीं होती। मंच संचालन और गणी – यह अब एक किवदंती सी है बन पड़ी। किंतु मंच संचालन और ध्वनि यंत्रों से पहले आपकी सजग जनपक्षीय लेखन यात्रा 1989 से 2001 तक क्रमशः ‘दैनिक अमर उजाला’ तथा ‘दैनिक जागरण’ के संवाददाता से शुरू हुई। यकीनन कविताएं उससे पहले भी आपके लहू में रही होंगी। स्वनामधन्य गीतकार नरेन्द्रसिंह नेगी का सानिंध्य मिला तो भाषा पर पकड़ और कविता की समझ बढ़ी। अतः यह लिखने में भी कदापि गुरेज नहीं कि आप आज जहां पूर्णकालीक पत्रकार हैं वहीं सजग कवि भी हैं और गूढ़ साहित्यकार भी! और यूं- चाहे वह किसी भी क्षेत्र की रही हो जमीन -तपे, मंझे, सधे ‘गणी दा’ जहां खड़े हुए-वहीं उन्होंने अपनी एक अलग ही छाप छोड़ी।अलग छाप और छपे हुए दस्तावेजों के बीच सन 2014 में ‘विनसर प्रकाशन’ से ‘वूं मा बोलि दे’ नाम से एक पुस्तक निकली। पुस्तक के लेखक हैं- गणेश खुगशाल ‘गणी’।- लेकिन यह बात हर पाठक, कलमकार के मन में निश्चित रूप से उठी कि दशकों से लेखनरत और संचयन में इतनी देरी? – वास्तव में – एक लम्बे अंतराल के बाद गणी दा के संचयन की यह पहली कसरत थी। किंतु कभी भी, किसी को भी अलग से गणी दा को संचयन में देरी का कारण पूछने की जरूरत नहीं पड़ी । क्योंकि उन्होंने इसी संकलन में लिखा है कि –‘किताब की सकल ल्हेकि तुम तक पौछण मा सत्ताईस साल लगि गेनि मेरी कविता तैं। मंच मा त मि कविता छंटि-छंटि ल्यांदो छौ। सुणदरौं तैं सुन्दर लगदि छै तब छपछपि पड़ि जांदि छै। पर किताब छपण मा डौर लगदि छै कि न हो क्वी कुछ बोलु, किलैकि किताब मा त सबि बानी कवितौंल औंण छौ। अब, जब सर्या किताब छाप्याली त इन डौर लगणी छ कि न हो क्वी कुछ बि नि बोलु।…..ई सर्या जंकजोड़ छ ‘वूं मा बोलि दे’।गणी दा! भले ही अपने इस काव्य संग्रह को सताईस साल का जंकजोड़ कह लें लेकिन पिछले दो दशक में इतने मंझे हुए अंदाज में गढ़वाली भाषा का कोई काव्य संग्रह मेरी दृष्ठि में आया ही नहीं है। इस काव्य संग्रह में गणी दा ने विभिन्न काल खण्डों में लिखी गई रचनाओं को मैत बिटि, गौं गाळ, उकरान्त, हमारा मनै, जीवन मा, आणौं मा कविता, ब्वन पर औंदन त, नीत्यूं कि नीति जैसे खण्डों में उनके भावों के अनुरूप अभिव्यक्ति दी है।आपके भावों की अनुभूति में मां पहली पंग्ति में है। मां पर आपने भावनाएं गहराई से व्यक्त की हैं। मां को संबोधित करते हुए लिखा है-
‘त्यरा खुटौं कि/बिवयूं बिटि छड़कद ल्वे
पर तू नि छोड़दि
ढुंगा माटा को काम
आखिर/कै माटै बणीं छै तु ब्वे?’
-या-
सर्रा पिरथ्या दुख वींकै भागौ छा धर्यां/अर वींल बोटि मुट्ठ अर सबि दुख वां मा अटर्यां।’ – या कि-‘जुगु-जुगु बिटि ज्यूंदि छ वींकि प्रीत/यांलै सैरि दुन्या लगांद अपणि ब्वे का गीत।’
-अथवा-
‘तब अच्छि लगिन/घासै पूळि अर लखड़ू बिट्गि/फुल्यूं लया, धण्ये क्यारी/पिंगळी मर्च, लगुलि उंद लगीं कखड़ि/गोड़ि बाछि, ठेकि मा पिजयां दूधौ फेण/ हैरि गिंवड़ि भ्वरीं सट्यड़ि/जबरि तक ब्वे बचीं रै।’
निसंकोच कह सकते हैं कि मां पर लिखे आपके ये एक अलग ही ढंग के काव्याचरण हैं।
इसी संचयन के मध्य ही कर्मठ नारी की महिमा भी उच्च कोटी की लिखी है – ‘यूं डांडौं मा यूं डांडौं से बड़¨ फंचु च वीं मा।’ और- श्रंगारिक छवि देखिए -‘मिन तेरी आंख्यू मा देखी/पिंगळदप्प फूल कखड़ि को….। मिन तेरी आंख्यूं मा देखी/कौंपदा ह्यूंद मा खिल्दु पयां।’
लेकिन पहाड़ में अब वह रौनक कहां! पहाड़ से जो नीचे उतरा वह ऊपर चढ़ने का साहस न बटोर सका। और अपने पीछे छोड़ गया सुनसान घर आंगन और दरवाजे पर लटकता ताला। ताले के लीवर को भी कुछ समय बाद जंक चाट गया। लिखते हैं गणी दा!-
‘जब बोलण पर अंदिन कूड़ि/त आदम्यूं से जादा बोलदन….
हम त वूंको भरोसु छां जो/हमूं तैं यूं मोरुंद लटकै गेनी/लोग लीवर बोलदन ज्यां खुणि
हमारि त अंदड़ि चाट्यलिन जंकन।’
-या-
कइ कूड़ि यन्नि कि/अगनै ताळा लग्यां अर पिछनै कूड़ि खन्द्वार होंयीं।….
वूं खंद्वार कूड़यूं का भितर जमीं कंडळि
पौंछिगे धुरपळा तक
व झपझपि कंडळि लपलपि ह्वेकि बोनी कि
मि कबि नि जमदू कैका भितर…’
कवि का कार्य मात्र लिखना भर नहीं। कवि का एक संदेश उनके लिए भी है जिन्होंने वर्षों से अपना पुस्तेनी घर देखा हि नहीं है।-
‘पुंगड्यूं का ओडा जख्या तखि छन/सरकंदरा क्वी नि छन
ऊंको दुबलो/हमारा पुंगड़ सौरिगे
वूं मा बोलि दे।’
किंतु संदेश पहुंचाकर भी क्या करें? क्योंकि आबाद गांवों की स्थिति भी बड़ी अजीबोगरीब हो गई है। गांवों वह अजीबोगरीब तस्वीर आपने कुछ यूं खींची है- ‘दिनभर तास ख्यलदा बैख/य त गौं का घपलै पंचैत । – ईं दुन्या मा क्या ई गौं रे गे छौ सल्यूं को/सर्या पिरथ्या सल्लि यखि छन सड़णां…./हे भगवान!/तेरा ईंइ गंवड़ि खुणि छा यि धर्यां/यि यख नि होंदा त क्या/बांझ पड़ि जांदो यो गौं?’
इसी कृति में जहां-तहां व्यंग्य के तंज उनके असरदार ढंग को कुछ यूं व्याख्यायित करते हैं – ‘उन त जुत्ता लोगु खुणै की बण्यां छन/पर लोग ईं बात मनौ तयार नि छन/ जुत्तौं बिगर क्वी चलदु नी/ अर जुत्ता चलदन त क्वी बरदास्त करदु नी’ – ‘ ह्वे सकद कैको बि पाटु-पैणु, हुक्का-पाणी बंद/कैकि बि देळिम क्वी बि धैर सकद खंद/जब बिटि मेरा गौं को एक आदिम मंत्री बण।’ -और एक सलाह – ‘आज वूनै कैदे तू टटकार/दारू मासु वळौं का बीच अंक्वे रौणू/खबरदार!’
खबरदार! सचेत होना भी चाहिए। अन्यथा सभी प्रतीक चिन्ह स्मृति में ही रह जायेंगे। कवि ने लिखा भी है- ’एक तरफ जांदरू छ जांदरौ हथन्यड़ु छ/जांदरा ये हथन्यड़ा पर/कथगै दौं बंध्यूं रै मेरू खुट्टू/जब ब्वे चलि जांदि घास, लखड़ू…। – न कैल देखी न कैल सूणी/झणि कब अफ्वी-अफ्वी/कै खटला मूड़/मोरिगे/कुण्या बूढ़।- चुल्लि बोनी मित जन बोलेंद अळ्ये ग्यों – भड्डु /न त लमडु/न टुटु/पर न फुटु/पर जख गै होलु/स्वादी स्वाद रयूं। -यह भी कि- झणि कब समझलि भागीरथी कि/टीरी कि जैं ढण्डि उंद व प्वणीं छ/वींई ढण्डि उंद भिलंगना बि म्वरीं छ/अब द्वी का द्वी/साख्यूं तक रैलि टीरी की की ईं ढण्डि उंद रिटणी।’ इतने गहरे बिम्ब वही ला सकता है जिसने ग्राम्य जीवन देखा भी हो और भोगा भी।
इसीलिए- अन्तर्मन में जो है वह अक्षरशः लिखा –
लसम्वड्यां खुटा पर/कंडळि कि सि झपाक। -कख कैरि जग्वाळ जबारी जोतु तबारी ज्वत्ये ग्यों।’ अथवा ये पीड़ा सतही नहीं है श्रीमान!- ‘ हे भगवान/तू कख ह्वेगे/अन्तर्धान/रूणू छ गौं कि/ स्य ह्वेगे भगयान! माया माहे / त्यारै दियान/पर /कैका कथुगु दिन/सि / तेरा अफुमै रख्यान।’ व्यथा सुनायंे तो सुनायें किसको? – ‘कै दिन? आलो उ दिन/जैका सार कटेणा छन इ दिन/कै दिन? आलो उ दिन/ जैका सार बीतिगे आजौ …?’ फिर भी तमाम विसंगतियों के बाद भी कवि मन में हताशा नहीं है। और-चाहते हैं कुछ न कुछ बचे तो! विश्वास न हो तो पढ़ो! – ‘ये लोळा डरौण्या बगत मा बि/कथगा चीज छन हमुम बचैणौं/बस-/बच्यां रै जैं लोग/ बच्यां रै जैं गौं।’ क्या सतही कह सकते हैं हम इस प्रकार की भावना को?
भाषा से जुड़े इंही आचार-विचार और संस्कारों को बचाने की मुहीम में तल्लीन हैं पिछले चार दशकों से भ्राता गणी! स्वनाम धन्य नरेन्द्र सिंह नेगी ने आपकी पुस्तक में अपनी बात ‘कबितौं की सार-तार’ अंश में लिखा भी है कि-‘गढ़वाळि भाषा थैं पयेड़ा लगै-लगै कि ठड्याण वळौं मा गणेश खुगशाल ‘गणी’ को भौत बड़ो योगदान छ। मातृभाषा का प्रति वेको पे्रम अर आदर वेकि कबितौं का साथ-साथ वेका सुभौ मा भी सदानि दिखेणू रौंदू।’
भाग दौड़ आपके जीवन में कुछ ज्यादा ही रही!
या यूं भी कह सकते हैं कि आप गृहस्थ हैं लेकिन गृह सीमित कभी रहे नहीं। लेकिन 22 मार्च 2008 को इसी भाग दौड़ के बीच में सुबह सबेरे एक दुर्घटना घटी। देहरादून से पौड़ी आते हुए देवप्रयाग से पहले ड्राइवर ने शिव की विशाल मूर्ति की पीठ देखी और वाहन की स्पीड कुछ ज्यादा ही बढ़ा दी। और एकाएक जीप ड्राइवर से संतुलन खोकर गहरी खाई में जा गिरी। उस दुर्घटना में सात लोगों की सांसें दुबारा लौटकर नहीं आई। किंतु त्रिनेत्र की वही पीठ गणी दा का सहारा बनी। वरना उस सीधी खड़ी चट्टान में जीवन देने की क्षमता कहां थी? आज भी आते-जाते उस खड़ी चट्टान पर जब दृष्टि पड़ती है तो लगता है वो एक दुस्वप्न था हकीकत हो ही नहीं सकती है। खैर अरिष्ठ छटे! विघ्न हटे! कृपालु रहे वही महादेव!
इसी दुर्घटना के बाद कुशल क्षेम के उदेश्य से-एक दिन गणी दा से आत्मीयतापूर्वक ये शब्द कहे- ‘ गणी दा! अब दौड़ भाग कम करदें! जादा दौड़ भाग बि ठीक नहीं है!’
आपने जवाब दिया- ‘भाई साहब दौड़ धूप नहीं होगी तो घर-परिवार….!’ बात भी सही कह गये गणी दा! सन्यासी हो तो एक जगह पालथी मार लें! दहलीज से बाहर निकलना ही होगा अगर घर परिवार है। लेकिन जीवन यापन के लिए कठिन संघर्ष के साथ-साथ कला, सहित्य, संस्कृति के लिए आपका काम निसंदेह प्रशसंनीय है।
एक प्रतीक और जुड़ा है गणी दा से। वह है उनका थैला! सदाबहार लटकता हुआ कांधे से! एक बार अवसर मिला तो पूछा- ‘गणी दा! क्या रहता है आपके इस थैले में?
जवाब मिला -एक डायरी और एक पैंट।
-पैंट क्यों?
-वो इसलिए कि न जाने बीच में ही कहीं और की राह पकड़नी पड़े।’
हम जानते हैं आम जीवन में आम आदमी के लिए राजमार्ग नहीं बल्कि उबड़-खाबड़ पथरीली रास्ते होते हैं। लेकिन सत्य यही है कि इन्हीं रास्तों पर चलते-हिलते-मिलते गणी दा ने भांति-भांति के अनुभव हासिल किये हैं। यही कारण है कि बात विचार ही नहीं अपितु गणी दा की कार्य संस्कृति भी समकालीनों से एकदम हटकर के है। यह कहने में भी कोई संकोच नहीं है कि कुछेक साहित्यिक विमर्षाें पर आपसे मतभेद जरूर रहे हैं। हो सकता है ये मतभेद आगे भी रहेंगे। लेकिन मनो में भेद कभी भूल से भी नहीं पनपे हैं।मूल साहित्य, कला, संस्कृति के अभेद किले में गणी दा कुछ न कुछ सृजनात्मक करते ही रहते हैं। उसी सृजनात्मकता के अक्स जब-तब धरातल पर दिखते भी रहे हैं। गढ़वाली ही नहीं बल्कि हिंदी में भी गद्य-पद्य दोनों विधाओं में समान अधिकार रखते हैं। गढ़वाली भाषा में ‘प्राथमिक पाठशाला’ के लिए पाठ्यक्रम तैयार करवाने में आप महति भूमिका में रहे हैं। कई पुस्तकों की भूमिका, अनुवाद तथा पत्र पत्रिकाओं के संपादकीय अंश भी आपके वृहद अनुभव से ही लिखे गये हैं। वर्तमान में गढ़वाली मासिक पत्रिका ‘धाध’ के सफल संपादक कर रहे हैं। साथ ही कई प्रतिष्ठानों में व्याख्याता, परामर्शदाता के रूप में भी अपनी नियमित सेवायें दे रहे हैं। समग्रता से यदि कहें तो आप व्यस्तता में भी व्यस्त ही रहे हैं।गणी दा! सत्य यह है कि आप तन मन से मातृभाषा की सेवा में जुटे हुए हैं! कर्मशील हैं तो कई सम्मान, पुरस्कार आपके खाते में स्वतः ही आये हैं। अन्तर्मन से निकट भविष्य में हम साहित्य, संस्कृति, सामाजिक सरोकारों में आपकी उपस्थिति का और अधिक विस्तार देख रहे हैं! माँ सरस्वती के आगे इसी मनोकामना के निम्मित ये हाथ जुड़े हैं!