“गौरा देवी”अपने ही गाँव रैणी से हुई विस्थापित,लेकिन प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे गाँव के लोगों की उचित व्यवस्था के प्रति प्रशासन ने मूंद ली आंखें..

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“गौरा देवी “अपने ही गाँव रैणी से हुई विस्थापित,लेकिन प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे गाँव के लोगों की उचित व्यवस्था के प्रति प्रशासन ने मूंद ली आंखें..

भाष्कर द्विवेदी,जागो ब्यूरो रिपोर्ट:

उत्तराखण्ड के चमोली जिले के रैणी गाँव की महिलाओं ने गौरा देवी की अगुवाई में चिपको आंदोलन चलाया था,रैणी गाँव ही वो जगह है जहां दुनिया का सबसे अनूठा पर्यावरण आंदोलन शुरू हुआ था,सत्तर के दशक में उत्तराखण्ड के रैणी गाँव में ही चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी,पेड़ काटने के सरकारी आदेश के खिलाफ रैणी गाँव की महिलाओं ने जबर्दस्त मोर्चा खोल दिया था,जब लकड़ी के ठेकेदार कुल्हाड़ियों के साथ रैणी गाँव पहुंचे तो रैणी गाँव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गई थीं! महिलाओं के इस भारी विरोध की वजह से पेड़ों को काटने का फैसला स्थगित करना पड़ा,लेकिन आज इसी रैणी गाँव को पर्यावरण की मार झेलनी पड़ रही है,ये आंदोलन इसलिए हुआ था ताकि पेड़ बचें और भूमि कटान न हो और गाँव के लोग विस्थापित न हों,लेकिन विडंबना देखिए आंदोलन चलाने वाली गौरा देवी की मूर्ति आज अपने ही गाँव रैणी से विस्थापित हो गयी! गौरा देवी की मूर्ति को उनके मूल स्थान से उखाड़ कर जोशीमठ में रख दिया गया है,चमोली की जिलाधिकारी स्वाति एस भदौरिया ने बताया कि गाँव वाले मूर्ति को रखने को तैयार नहीं थे, इसलिए विधिवत पूजन के बाद उसे प्रशासन ने अपने पास रखा है,बाद में उनके नाम से बड़ा स्मारक और उपवन बनाने की योजना है,हो सकता है इसका डीपीआर बनाने का भी आदेश हो गया हो,लेकिन ये उपवन बनेगा कहाँ ?गाँव बचेगा तब ना मूर्ति की पूजा कर देने से उन गाँव वालों की भावनाओं को तुष्ट किया जा सकेगा!क्या गाँव के लोग इसका पिलर तोड़ते वक्त बिलख रहे थे? क्या मूर्ति को सुरक्षित रखने भर से गाँव सुरक्षित हो गया?हुकूमत न कटान से गाँव को बचा पायी और न ही अब लोगों के साथ उनके पालतू जानवरों के विस्थापन में तत्परता दिखा रही है,गाँव के प्रधान भवान सिंह बताते हैं कि कुछ दिन से मौसम खराब होने पर लोग ऊपर पहाड़ चढ़ कर उडयारों (गुफाओं) में शरण ले रहे थे,लेकिन अब तो वहां भी पहाड़ धंसने लगे,जिनके बच्चे बाहर मैदानी शहरों में नौकरी करते हैं और जिनके दूसरे कस्बो- शहरों में घर हैं,वे तो चले गये,बाकी अपने ढोर डंगर लेकर कहाँ जाएं,प्रशासन को विस्थापन की अर्जी दी हुई है पता नहीं कब सर्वे होगा कब जमीन मिलेगी? “चला दीदी,चला भूल्यो जंगल बचोला”यह गीत रैंणी से होते हुए समूचे पहाड़ और फिर दुनिया में गाया,रैंणी गाँव जंगलों और धरती को बचाने का प्रतीक बना था,रैंणी के लोगों की बात में सच्चाई है, कि हमें दुनिया में प्रसिद्धि तो मिली,पर अपने ही घर में भुला दिया गया,गौरा की बहू जेठी देवी कहती हैं मैंने अपनी सास के अंदर चिंगारी देखी थी,मेरा सौभाग्य था कि मैं भी उनके साथ जंगलों को बचाने गई थी,लेकिन तब की प्रसिद्ध और अब के हालातों को देखकर लगता है कि सरकारों की उदासीनता और प्रशासन की उदासीनता से हम अपने जीवन को और अपने भविष्य के साथ गौरा देवी की जीवनी और उनके बलिदानों को कैसे सुरक्षित रखें?यही सबसे बड़ा सवाल और चिंता का विषय है,”जागो उत्तराखण्ड” इस मामले में उत्तराखण्ड सरकार से निवेदन करता है कि रैंणी गाँव वालों को उनके पालतू पशुओं सहित उनके उचित विस्थापन की व्यवस्था अविलंब करे,यही गौरा देवी जी को श्रद्धांजलि होगी।

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