अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाला ही गुरु है…
अजय पाल सिंह रावत,मैनेजर ज्ञान भारती सीनियर सेकेण्डरी स्कूल-चेयरमैन मालिनी वैली बी॰एड॰ कॉलेज, कोटद्वार
“शिक्षक दिवस की शुभकामनायें‘‘
‘‘गुरू गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पांय,
बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बताए “
सर्वप्रथम मैं आप सभी गुरूजनों को टीचर्स डे की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं देता हूँ। ऋषि-मुनियों की तपस्थली व कर्मस्थली भारतवर्ष में आदिकाल से ही गुरू की महिमा का वर्णन किंवदंति कथाओं के माध्यम से समय-समय पर सुनने व पढ़ने को मिलती रहती है। विश्व विजेता सिकन्दर हो या सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ये सभी अपने गुरूजनों के सामने घुटनों के बल बैठा करते थे। एकलव्य की कहानी गुरूओं की महिमा में उस समय चार चाँद लगा देती है, जब वह मात्र गुरू प्रतिमा से ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी का कीर्तमान स्थापित करता है व गुरू की श्रेष्ठता व महानता को एक विशिष्ट स्थान देकर हमारी भारतीय संस्कृति की उत्कृष्ठता से हमें विश्व गुरू होने का गौरवान्वित करता है।गुरू शब्द का शाब्दिक अर्थ हमारे समाज के बुद्धजीवियों व विद्वानों के अनुसार, ‘‘अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर लाने वाला ही गुरू कहलाता है।‘‘ लेकिन एक बाल मनोवैज्ञानिक के द्वारा गुरू शब्द को इस प्रकार भी परिभाषित किया गया है कि ‘गुरू‘ वह होता है जो बच्चों को देखे कसाई की तरह व प्यार करें माँ की तरह।आज 05 सितम्बर को जिस महान व्यक्तित्व का जन्म हम शिक्षक दिवस के रूप में मना रहें है उस गुरू ने इस परिभाषा को उस समय चरितार्थ किया जब डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन मैसूर विश्वविद्यालय से कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में आ रहे थे तो मैसूर विश्वविद्यालय के छात्रों ने अपने गुरू की विदाई के लिए एक बग्गी बनाई और उस बग्गी को फूलों से सजाकर सभी छात्र स्वयं खींचकर अर्थात उस बग्गी पर घोड़ों की जगह स्वयं लगकर उन्हें रेलवे स्टेशन तक लाए। वास्तव में इस विराट व्यक्तत्व ने शिक्षक समाज को युग-युगान्तर के लिए उस समय ऋणी कर दिया था, जब उनके शिष्य उनके जन्मदिन को मनाने के लिए उनसे विनम्र आग्रह कर रहे थे। काफी मान-मनोबल के पश्चात् उन्होंने अपने जन्मदिवस को एक शिक्षक दिवस के रूप में मनाने पर सहमति जताई। उस समय डॉ॰ राधाकृष्णन जी भारतवर्ष के राष्ट्रपति के पद पर शुशोभित थे।भारत के राष्ट्रपति पद की गरिमा उन्हीं जैसे सादगी की ऊँची जिन्दगी जीने वाले महामानव से सार्थक हुई। लम्बे समय तक भारत के उपराष्ट्रपति व 1962 से 1967 तक उन्हीं के राष्ट्रपति काल में सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध तथा 1965 में भारत-पाक युद्ध लड़ा गया था। अपने ओजस्वी भाषणों से भारतीय सैनिकों के मनाबल को ऊँचा उठाने में उनका योगदान सराहनीय था।भारत के ये महान सुपुत्र यहीं नहीं रूके, इनकी कुशाग्र बुद्धि ने भारत को राष्ट्र ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अनकों ख्याति दी है। डॉ॰ राधाकृष्णन जी भाषण कला के आचार्य थे। विश्व के विभिन्न देशों में भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन पर भाषण देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उनकी यही आध्यात्मिक शक्ति सबको प्रभावित करती थी और अपनी ओर आकर्षित करती थी।हाजिर जवाबी में तो डॉ॰ राधाकृष्णन जी का कोई जवाब ही नही था। एक बार वह इंग्लैण्ड गए। विश्व मे उन्हें हिन्दुत्व का परम विद्वान के रूप में जाना जाता था। भाषण के पश्चात् एक अंग्रेज ने डॉ॰ राधाकृष्णन जी पूछा कि हिन्दू क्या कोई समाज हैं? हिन्दू कितने बिखरे हुए है। तुम्हारा एक सा रंग नहीं, कोई गौरा, कोई काला, कोई बौना। तुम्हारा पहनावा भी कोई धोती पहनता है तो कोई लुंगी, कोई कुर्ता तो कोई कमीज। देखो हम अंग्रेज सब एक जैसे है। सब गौरे-गौर, लाल-लाल। इस पर डॉ॰ राधाकृष्णन जी ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘घोड़े अलग-अलग रंग-रूप के होते है, परन्तु गधे एक जैसे होते है। अलग-अलग रंग और विविधता विकास के लक्षण है।‘‘इस महामानव को जहाँ भारत तथा विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों ने मानद उपाधियों से सम्मानित कर अपना गौरव बढ़ाया वहीं सौ से अधिक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टर की मानद उपाधि से सम्मानित किया। उनके द्वारा लिखी गई किताबों की श्रृंखला आज भी भारत को दिशा देने में मील के पत्थर है।वर्तमान परिवेश में इस भौतिकवादी युग की अंधी दौड़ में जहाँ जीवन की आवश्यकताएं बढ़ती ही जा रही है। नई आशाएं व तृष्णाएं बलवती होकर उभर रही है। जहाँ शिक्षकों के ऊपर कई बंदिशें शासन-प्रशासन के द्वारा लगाई जाती है। क्या इन बंदिशों के बावजूद भी वह एक चरित्रवान व अनुशासित छात्र इस समाज को दे पाएगा? शायद यह एक दिवास्वप्न ही होगा। जहाँ आज के अभिभावकों ने ऊँची व महंगी शिक्षण संस्थानों में अपने बच्चों को पढ़ाना एक स्टेटस सिम्बल बना दिया है, ऐसे वक्त में एक निष्ठावान, ईमानदार व चरित्रवान शिक्षण जिनकी आज भी कमी नहीं है, अपने आप को इस समाज में एक आदर्श शिक्षक बना पाएगा? वह अपनी जमीन तो ठोस बना सकता है, लेकिन इस भौतिकवादी युग में वह केवल आध्यात्म के बलबूते जी भी नहीं सकता है।अन्त में मैं यह ही कहना चाहूँगा कि अगर शासक वर्ग शिक्षक वर्ग को प्रोत्साहित करें व शिक्षा का मूल-स्तम्भ गुरू है व गुरूजनों की मूल अवधारणा भी इस प्रकार हो जैसा कहा भी गया है कि विद्यालय रूपी देवालय में शिक्षक एक पुजारी है व शिक्षार्थी उसकी आराधना की देवी है।