हिन्दी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी ने पहली जुलाई को जीवन के पचहत्तर वर्ष पूरे किये हैं। सन् साठ के बाद की हिन्दी कविता को आधुनिक मुहावरा और एक समृद्ध भाषा देने के लिए उन्हें खास तौर पर जाना जाता है। उनके दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें सबसे नया संग्रह ’जितने लोग उतने प्रेम’ है। वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार प्रमोद काँसवाल की बातचीत के कुछ अंश।
प्रश्न- पचहत्तर साल के हो गये आप। कैसा महसूस करते हैं?
पहली बार नयी-नयी मूँछों पर उस्तुरा फिराते हुए महसूस किया था कि मैं युवा हँू। और जब भी अपनी दाढ़ी-मँूछें छुपाने के लिए मिटा देता तो मैं अपने को युवाओं के बीच अधिक नया महसूस करता। यह दिखाने की चेष्टा करता कि देखो और विचार करो कि हँू तो मैं सबसे छोटा, लेकिन विचारों की सृजनात्मकता में मैं बड़ों जैसा हॅू और मेरा विश्वास करो, मैं जो कर रहा हँू, कविता कर रहा हँू। अब पचहत्तरवाँ वर्ष पूरा करते हुए अनुभव होता है कि तब मैं उम्र से युवा था और विचारों से शायद अधूरा। लेकिन तब मुझे अपने प्रति संदिग्ध हो उठता हँू। मेरे विरोधाभास कहीं यादा तीक्ष्ण और दिखाई पड़ने वाली स्पष्टता को प्राप्त हुए हैं। मैं पश्चिम से उतना प्रभावित नहीं हो सका, जितना भारत और एशिया की परम्पराओं से ओतप्रोत होता रहा हँू। एक वैचारिक समय ऐसा भी आया कि पूरे विश्व की सांस्कृतिक यात्राओं का ज्ञानात्मक स्पर्श प्राप्त करते हुए थोड़ा अलग से कुछ सोचने और करने का मन हो। सामाजिक अन्याय को दूर करने के लिए चलने वाले आन्दोलनों और संघर्ष के हर मोर्च पर मार खाकर भी डटा रहा। तब जो समय और भाषा हाथ लगी, उसी को अपनी कविता की आवाज बनाने की कोशिश की। सफलता-विफलता का मूल्यांकन मैं नहीं कर पाऊँगा। मेरे पचहत्तर वर्षो का सफर मुझे किसी नये समाज तक नहीं पहूँचा सका। विज्ञान ने जरूर कुछ बेहतर उदाहरण दिखाये, पर बाजार और बनियागिरी ने विज्ञान को भी बेच खाने के सारे उपाय रच डाले। जगह-जगह समृद्धि के विशालकाय बाँध जरूर बने, पर उन्नत जीवन सबके जीवन में नहीं आ सका। हमारे आधुनिक साहित्य का अस्तित्व बना तो, लेकिन उसमें उदारता और विकसित होती प्राणवान कलात्मकता यादा नहीं आयी। यथार्थ की स्मरणीय प्रस्तुतियाँ बहुत कम ऐसी हुई हैं जो कला को भी एक नया मूल्य देती हों। शब्द बढ़े पर शब्दार्थ नहीं बढ़े। फिर भी रचनात्मकता की नयी-नयी दिशाएँ हिन्दी में खुलती जा रही हैं। मैं भी अपने को उसी रास्ते का एक विकसित मुसाफिर समझता हूँ जो पूर्व- रचित पात्रों और परिस्थितियों से प्रेरणा लेना गुनाह नही समझता है।
प्रश्न- आपकी रचना यात्रा से लगता है कि आप अपने को हमेशा नया बनाते रहते हैं!
पहले मैं छायावाद के मानववाद से प्रभावित रहा। उस कालखंड की रचनात्मक भाषा और संवेदना से अलग होने के लिए नयी कविता और अकविता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। नयी कविता ने जो अलगाव पैदा किया और अकविता ने जो तोड़फोड़ पैदा की, उसके अलावा विश्व को जोड़ने वाली एक खिड़की खुली जो हिप्पियों और बीटल्स की थी। एलें गिन्सबर्ग का भी प्रभाव रचनाकारों पर पड़ा। दबे-ढके साहित्य के सारे आग्रहों ने ने केवल घूँघट उतारा, बल्कि कपड़े भी उतार दिये। पहली बार युवा लोगों ने नंगे शरीर की चादर को पहचाना और उसे ज्यों का त्यों रख देने का इरादा त्याग दिया। वे दिमाग से पहले शरीर से काम लेने लगे। इसका प्रभाव कहानी और अन्य विधाओं पर भी पड़ा। एकदम नंगा और अनलंकृत यथार्थ सामने आने लगा। ऐसे में मेरी स्थिति कई तरह के भँवरों में फँसी हुई सी डाँवाडोल थी। मैं अपना भी कोई किनारा पाना चाहता था, लेकिन लहरों से भी किनारा नहीं करना चाहता था। मैं प्रकृति, गीत और नयी कविता के लयात्मक गह्ा की ओर बढ़ा और उसका परिणाम था ’शंखमुखी शिखरों पर’ में संगृहीत कविताएँ। इस संग्रह की समीक्षा करते हुए प्रख्यात कवि प्रयाग शुक्ल ने ’कल्पना’ पत्रिका में एक नये शब्द का प्रयोग करते हुए कहा था कि लीलाधर शर्मा की ये कविताएँ ’घरू मोह’ की भी कविताएँ है। घरू मोह शब्द प्रयाग जी ने नाॅस्टेल्ज्यिा के लिए इस्तेमाल किया था। पर राजकमल चैधरी, धूमिल मैंने अपना नाम भी बदल दिया। मैंने धूमिल की तरह अपना उपनाम नहीं रखा, बल्कि ब्राह्मण होने की पहचान मिटाने के लिए खुद को शर्मा की जगह जगूड़ी बना दिया। यह ग्रामवाची नाम है। खैर, मेरा 1960 के बाद का नया नाम ’नाटक जारी है’ में प्रकाशित हुआ।