हिम्मती पहाड़ी अजय भदोला की स्वरोजगार से पलायन को चुनौती देने की मुहिम का गला घोंटने पर उतारू कॉर्बेट के वन अधिकारी..
जागो ब्यूरो एक्सक्लूसिव:
उत्तराखण्ड सरकार ने पहाड़ी जनपदों से रोजगार के लिये हो रहे बेहताशा पलायन को रोकने के लिए कई योजनायें चला रखी हैं,लेकिन इन योजनाओं को धरातल पर उतारने में सरकारी अधिकारी ही रोड़ा अटका रहे हैं,मामला पौड़ी जनपद के धुमाकोट तहसील के अंतर्गत जमूण गाँव का है जमूण एक ऐसा गाँव है,जो कॉर्बेट नेशनल पार्क के बफर जोन में आता है,यह एक राजस्व ग्राम है,यहां पर एक नवयुवक अजय भदोला अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ पलायन को चुनौती देते हुये एक लम्बी लड़ाई लड़ रहा है,लगभग डेढ़ दशक से वह यँहा पर अपनी पुश्तैनी जमीन पर पर्यटन कारोबार चलाना चाह रहा है,क्योंकि इस इलाके में काफ़ी मात्रा में वन्यजीव पर्यटक पहुँचता है,इसके लिये उसने उत्तराखण्ड के पर्यटन विभाग से होम स्टे योजना के तहत रजिस्ट्रेशन करा पच्चीस लाख का लोन भी ले रखा है,जिससे उसने आधा दर्जन से ज्यादा टेंट हाउस का निर्माण कर और घोड़े इत्यादि रखकर पर्यटन के लिए कई व्यवस्थाएं बनाने का प्रयास भी किया है,लेकिन उसकी इस योजना को नाकामयाब करने पर उतारू हैं,कॉर्बेट नेशनल पार्क के वन अधिकारी,हालात यंहा तक है कि अब वह होमस्टे योजना के तहत लिये गये लोन की क़िस्त भी जमा नहीं कर पा रहा है और भुखमरी के कगार पर पहुँच गया है,दरअसल जमूण गाँव का रास्ता कॉर्बेट नेशनल पार्क के दुर्गा देवी गेट से होकर जाता है,दुर्गा देवी गेट पर ही फॉरेस्ट के अधिकारी मुख्यगेट पर ही ताला मार कर जमूण गाँव के ग्रामीणों का रास्ता बंद कर देते हैं,जिससे कि देर सवेर ग्रामीण अंदर गाँव तक नहीं जा पाते,जमूण तिराहे और उसके आगे तक सड़क मार्ग मौजूद है,जो कि आगे रिखणीखाल तक जाता है,लेकिन जमूण तिराहे से जमूण तक ग्रामीणों को पैदल ही जाना होता है ,वन विभाग के अधिकारी हाईकोर्ट के एक आदेश का हवाला देकर अजय भदोला उसके परिवार और पर्यटकों को उसके कैम्प तक पहुंचने से भी रोक लेते हैं,दरअसल हाई कोर्ट का यह आर्डर एक जनहित याचिका के सिलसिले में दिया गया था,जिसमें इस इलाके में पूर्व में एक बाहरी व्यक्ति द्वारा स्थापित एक रिसोर्ट द्वारा पास बह रही रामगंगा नदी में महाशीर मछली के अवैध शिकार किये जाने को लेकर रास्ता बंद करने के आदेश दे दिए गये थे,लेकिन वन विभाग और सरकार की तरफ से यह पैरवी ना होने के कारण कि इस मार्ग मूल रूप से ग्रामीणों का सदियों पुराना मार्ग है और ग्रामीण भी इसका प्रयोग करते हैं,हाईकोर्ट ने ऐसा आदेश दे डाला और हाईकोर्ट के आदेश पर वन विभाग द्वारा यह रास्ता ग्रामीणों के लिए भी बंद कर दिया गया,जबकि यह जमीन इन ग्रामीणों की सदियों पुरानी जमीन है और यहीं से इनकी रोजी रोटी भी चलती है,ऐसे में इन ग्रामीणों का रास्ता रोकना मानवाधिकार कानूनों और वन में निवास करने वाले मूल निवासियों के संवैधानिक हक़ का भी उल्लंघन है,लेकिन हाईकोर्ट के संज्ञान में इन तथ्यों को लाने के बजाय वन विभाग के अधिकारी और सरकार के नुमाइंदे खुद ही ऐसी परिस्थितियां पैदा कर रहे हैं,जिससे ग्रामीण यहां पर रोजगार न कर सकें और अपनी जमीन जायजाद औने-पौने में बेचकर पलायन कर दें, दूसरी ओर इसी इलाके में कई धनाढ्य लोगों के रिजॉर्ट बने हुए हैं,जिनके लिये वन विभाग ने ही पहुँच मार्ग बनवा रखे हैं,इन रिसॉर्ट्स से करोड़ों रुपए का पर्यटन कारोबार हर साल होता है,शायद वन विभाग और सरकारी मशीनरी नहीं चाहती कि यहां पर स्थानीय लोग भी पर्यटन का कारोबार करें,क्योंकि जानकारी प्राप्त हुई है कि अमीर धनाढ्य रिसॉर्ट मालिकों से उन्हें दो नंबर में मोटी कमाई प्राप्त होती है, ऐसे में वे स्थानीय ग्रामीणों को पर्यटन से रोजगार उत्पन्न करने और भविष्य में स्थानीय लोगों द्वारा इन अमीर पर्यटन कारोबारियों के लिए कंपटीशन पैदा होने से बचाने के लिये ग्रामीणों का रास्ता रोकते हैं,अजय ने हाईकोर्ट में उक्त आर्डर के खिलाफ भी इंटरवेंशन याचिका दायर कर न्याय की गुहार भी लगायी, लेकिन वकीलों की मोटी फीस न दे सकने की वजह से वह अपनी लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुंचा सका और अब उसने थक हार कर यहां पर कृषि काम शुरू करने की ठानी है और जिसके लिए उसने उसने कृषि विभाग की मदद से एक ट्रैक्टर भी खरीदा है,लेकिन कॉर्बेट नेशनल पार्क के निदेशक मौखिक रूप से यह तो कहते हैं कि अजय के ट्रैक्टर को खेतों तक ले जाने दिया जायेगा,वहीं कालागढ़ फारेस्ट डिवीजन के डीएफओ अजय को अपने खेतों तक ट्रैक्टर ले जाने से रोक दिया जाता हैं,जबकि पास ही अकबर अहमद डम्पी के हाइप्रोफाइल रिसोर्ट में ट्रैक्टर भी चल रहा है और पूर्व में हरीश रावत सरकार के कार्यकाल में पूरी उत्तराखण्ड सरकार ही यंहा रिज़र्व फारेस्ट के नियम कानूनों को ठेंगा बताते हुये हेलीकाप्टर से उतरी थी!लेकिन नियम कानून तो अजय जैसे ग़रीब पहाड़ी लोगों के लिए ही हैं,यह डॉक्यूमेंट्री अजय भदोला ने खुद “जागो उत्तराखण्ड” को बनाकर भेजी है,क्योंकि पूर्व में कई बार “जागो उत्तराखण्ड”इस मामले को उठा चुका है और हर बार इस दूरस्थ इलाके में जाना संभव नहीं हो पाता,ऐसे में अजय ने ही इस डॉक्यूमेंट्री को बनाकर “जागो उत्तराखण्ड” को भेजा है,जिससे उसकी आवाज सरकार और मानवाधिकार संगठनों तक पहुंच सके और वह उसकी मदद को आगे आ सकें,लेकिन कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह है कि एक तरफ सरकार पहाड़ी इलाकों से पलायन रोकने की बात करती है,वहीं जब पहाड़ के लोग पर्यटन,खेती,पशुपालन या किसी और तरीके से रोजगार पैदा करना चाहते हैं,तो सरकार के ही अधिकारी उसमें रोड़ा अटकाने से बाज नहीं आते,जबकि सरकार के अधिकारियों की नीति लचीली और स्थानीय लोगों को सहयोग करने वाली होनी चाहिये,जिससे कि यँहा से लोग पलायन न करें और यहीं पर अपना रोजगार करते रहें,जो कि इस पहाड़ी राज्य की मूल अवधारणा भी है,लेकिन इस मामले से तो यही लगता है कि एक तरफ सरकार होमस्टे बनवाकर रोजगार देने की बात करती है,तो दूसरी तरफ सरकार का ही वन विभाग इस होम स्टे योजना का गला घोंटने पर उतारू है,वंही दूसरा पहलू यह भी है कि उत्तराखंड के इस इलाके में आज भी जमूण जैसे दर्जनों गाँवों के बाशिंदे बेहद बदतर जीने जीवन जीने को मजबूर हैं,क्योंकि ना उनको गाँव तक पहुंचने के लिए सड़क है ना पानी, न बिजली और न रामगंगा नदी पार करने को कोई पुल,अगर सरकार इन लोगों को यँहा रोज़गार नहीं दे सकती तो उनकी सैकड़ों नाली भूमि के एवज़ में कँही और उनको इतनी ही भूमि ही दे दे ताकि उनके जीवन जीने और रोज़गार करने का संवैधानिक हक़ तो उनको मिल सके,लेकिन लगता यह है कि भले ही उत्तराखण्ड राज्य की अवधारणा पहाड़ी क्षेत्र का विकास करने के लिए हुई हो,लेकिन हकीकत में यहां विकास केवल अमीरों और ऊंची पहुंच वाले लोगों का ही हो रहा है,पलायन को चुनौती देता अजय भदोला और उसके परिवार का डेढ़ दशक से लंबा संघर्ष सरकारी मशीनरी के लगातार रोड़े अटकाने की वजह से एक दिन दम तोड़ दे,इसमें कोई दो राय नहीं,लेकिन इस संघर्ष के दम तोड़ने का मतलब यह होगा कि अजय भदोला जैसे लाखों नवयुवक जो पहाड़ में स्वरोजगार उत्पन्न कर पलायन को चुनौती देना चाहते हैं,उनका हौसला भी दम तोड़ दे!