पहाड़ी उत्पादों के व्यापार मेलों में बिचौलियों का भी ‘खेल’…
व्योमेश जुगरान,वरिष्ठ पत्रकार:
इंदिरापुरम का महाकौतिक अब प्रवासी पर्वतीयों के एक बड़े व्यापार मेले का आकार ग्रहण कर चुका है। इस बार यह दिसम्बर के दूसरे पखवाड़े करीब नौ दिन तक चला। कड़कड़ाती सर्दी के बीच इस महामेले में खूब भीड़ जुटी। स्थानीय रामलीला मैदान में सजे दर्जनों स्टॉलों में पहाड़ी उत्पादों की भरमार रही और लोगों ने जमकर खरीदारी की।ऐसे आयोजनों और आयोजकों को लेकर लोगों की अलग-अलग राय बेशक हो, मगर खासकर दिल्ली एनसीआर में पहाड़ी उत्पादों का एक बड़ा बाजार विकसित करने में ऐसे मेलों का अहम योगदान है। यह स्थायीभाव कि महाकौतिक में अपनी माटी में उगी पहाड़ी दालें, साग-सब्जी, फल और पहाड़ी जीवन-शैली से जुड़ा अन्य सामान एक ही जगह पर उपलब्ध है, लोग दूर-दूर से यहां खरीदारी करने को आते हैं। उन्हें यहां खरीददारी के साथ-साथ अपनी पर्वतीय संस्कृति की भी झलक मिलती है। हां, यह जरूर है कि ऐसे आयोजनों में व्यवस्था के प्रति आयोजकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। व्यवस्था से आशय है, वैयक्तिक सुरक्षा से लेकर उपभोक्ता का हितचिंतन। वरना मुनाफाखोरी के बीच पता ही नहीं चलता कि आप जो उत्पाद खरीद रहे हैं, वह पहाड़ी है भी कि नहीं और जिससे खरीद रहे हैं, वह उचित पात्र है कि नहीं।असल में जब से पहाड़ी उत्पादों के प्रति ललक बढ़ी है, इस धंधे में बिचौलिये सक्रिय हो गए हैं। इनका जाल दिल्ली से लेकर देहरादून और पहाड़ी अनाज मंडियों तक फैला हुआ है। इस बार भी महाकौतिक में उत्तराखंड सरकार के उद्योग विभाग द्वारा संस्तुत स्वयं-सहायता समूहों के नाम पर लगे करीब दो दर्जन स्टॉलों के बारे में पता चला कि इनमें से अधिकांशतः पहाड़ की कोऑपरेटिव के थे ही नहीं। ये लोग कहीं से भी माल उठाकर उन सुविधाओं का फायदा पा लेते हैं जो कि ऐसे मेलों में पहाड़ी उत्पादों और उत्पादकों को प्रोत्साहन के मद्देनजर सरकार द्वारा दी जाती हैं। इन स्टॉलों का किराया उत्तराखंड सरकार का उद्योग विभाग भरता है, माल ढुलाई का पैसा देता है और विक्रेता समूह के रहने व खाने का प्रबंध करता है। देहरादून के सियासी गलियारों में मेलों के इन स्टॉलों को हथियाने की होड़ करते अनेक दलाल आपको मिल जाएंगे। एक बार अर्जी मंजूर क्या हुई, उनका यह आवंटन ऊंची बोली के साथ आसानी से आगे बिक जाता है। कई बार तो सौदा तीन-तीन हाथों से होकर मेले में पहुंच पाता है। ऐसी अनेक फर्जी दलाल, एनजीओ व समितियां आपको मिल जाएंगी जिनका काम ही सरकारी खर्च पर मिलने वाले स्टॉल हथियाना है और फिर बैठे-ठाले कमीशनखोरी करना है। अब यह कहना मुश्किल है कि मेले के आयोजकों की इस पूरे धंधे में कहां तक साठगांठ होती है मगर यह तो माना ही जा सकता है कि कौतिकों के जरिये कमाई के नए स्रोत फूटे हैं। लिहाजा आयोजकों की जवाबदेही तो बनती ही है।असल में पहाड़ में सहकारिता को बढ़ाने के लिए ग्रामांचलों के स्वयं-सहायता समूह बने हुए हैं जो कि पिछले दस पंद्रह सालों से अस्तित्व में हैं। इनमें कुछ राज्य के उद्योग विभाग में पंजीकृत हैं और कुछ गैरपंजीकृत। कायदे से इनका काम घर-घर जाकर माल एकत्र करना होना चाहिए ताकि पहाड़ी किसान को उसके घर पर ही उत्पाद का वाजिब दाम मिल सके। मगर ऐसा नहीं हो पाता।सहकारिता के नाम पर दलाली की एक संस्कृति पनप गई है।
ये लोग किसानों से माल नहीं खरीदते, बल्कि इस ताक में रहते हैं कि कब और कहां जरूरत के अनुसार समिति का नाम बेचा जाए और बैठे ठाले कमीशन खा लिया जाए। बाजार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो इन समितियों के ठप्पे के साथ मेलों में पहुंचते जाते हैं। उनका माल कहां से आ रहा है किस दर्जे का है, यह पता ही नहीं चलता। ग्राहक भी समिति का बैनर देख आसानी से झांसे में आ जाता है।
उम्मीद जगाते लोग…
इन सबके बीच कुछ लोग हैं जो अपने मेहनतकश स्वभाव से न सिर्फ पहाडों में खेती-किसानी को प्रोत्साहित करने का काम कर रहे हैं, बल्कि जिन्होंने व्यावसायिक कुशलता के मामले में भी अपना लोहा मनवाया है। दीपक ध्यानी इन्हीं में से एक हैं। दुबई में मोटे वेतन वाली नौकरी छोड़कर उन्होंने पहाड़ी उत्पादों के कारोबार को अपनाने का जोखिम उठाया और आज पूर्वी दिल्ली में ‘स्यारा ट्रैक्सिम प्रा. लि.’ के नाम से उनका अपना स्टोर है। यहां आपको पर्वतीय उत्पादों की एक बड़ी रेंज मिल जाएगी। शुद्धता के मामले में उन्होंने अपने उत्पादों की टैग लाइन ही यही रखी है- ‘स्यारा बटै त्यारा घौर..। यानी खेत से सीधे आपके घर पर।दीपक बताते हैं कि उन्होंने इस बार इंदिरापुरम महाकौतिक में लगाए गए अपने स्टॉल से पहाड़ी दालों समेत करीब 5 कुंटल माल बेचा। दीपक उत्तराखंड में पहाड़ के हर हिस्से में जाते हैं और वहां के खास उत्पाद को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं और किसानों को इसे उगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वह कहते हैं कि उत्तराखंड में सरकारें यदि सही ढंग से पहाड़ी खेती को प्रोत्साहित करें और ठोस नीति बनाकर इन्हें जमीन पर उतारें तो वहां की मिट्टी में सोना उगाया जा सकता है। सरकार ने समर्थन मूल्य इत्यादि तो घोषित किया है मगर इसका कोई लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है।वह बताते हैं कि समर्थन मूल्य पर खरीदना तो हमारे वश में भी नहीं है क्योंकि सुदूर गांवों से माल को दिल्ली तक लाना और साफ-सफाई, पिसाई इत्यादि के बाद ग्राहक तक पहुंचाना सहज नहीं होता। हां, हमने इतना अवश्य किया है कि बिचौलियों से बचाने के लिए किसानों के समूह बना दिए हैं और सीधे उन तक जाकर सामान खरीदते हैं। इसका फायदा यह हुआ है कि उन्हें अपने उत्पादों के अब दुगने दाम मिल रहे हैं। दीपक बताते हैं कि हमने बिचौलियों का बाजार खराब किया है और हम रेट गवर्न करने लगे हैं। इसके पीछे हमारा मकसद पहाड़ की खेती-किसानी को नए सिरे से जिन्दा कर व्यावसायिक बाना पहनाना है। लेकिन हमें सरकार की ओर से कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता बल्कि उपेक्षा मिलती है। इस बार हमने प्रगति मैदान के व्यापार मेले में उत्तराखंड पैबेलियन में एक स्टॉल के निमित्त प्रयास किया था मगर असफल रहे।