लोक गीतों को गाकर मिटा रहे गिरीश पंतवाल जैसे प्रवासी पहाड़ की”खुद”…
जागो ब्यूरो रिपोर्ट:
लोक संगीत वर्षों से मानव की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रहा है,जिसे समय-समय पर वह अपने गीतों द्वारा व्यक्त करता आया है,चाहे वह सुख-दुःख के क्षण हो या समसामयिक विषयों पर लिखे गये जन जागरण के स्वर सभी को लोकगीतों के माध्यम से सदियों से अभिव्यक्त किया जाता रहा है, कोरोना महामारी के चलते आज संपूर्ण विश्व में हाहाकार है व देश में लॉक डाउन है,भले ही कुछ लोग अपने घर पर ही हों या खुशकिस्मती से अपने घर-गाँव लौट आये हों,लेकिन पहाड़ के वे लोग जो हर साल मई-जून में अपने घर-गाँव आते थे,इस समय काफलों का स्वाद चखते थे,शायद इस बार ऐसा न हो पाये!क्योंकि समय परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं दिखती, इस समय भी उत्तराखण्ड के काफ़ी लोग लॉकडाउन के चलते अपने गाँव और शहरों से दूर प्रवासी हैं व वहीं से अपने लोकगीतों को गाकर उस माटी का एहसास कर लेना चाहते हैं,जिसमें खेलते हुए वह बड़े हुए हैं और जिन लोक गीतों को लोरियां की तरह सुन सुनकर उन्होंने भविष्य के अनेक सपने संजोए थे,इन गीतों को गाते हुए आज भी उनके अंतर्मन में वह सुगंध फैल जाती है और वह अपने पहाड़ों को याद कर लेते हैं,इन लोकगीतों के माध्यम से अपनी “खुद”को मिटा लेते हैं और दिलासा देते हैं कि कभी ना कभी सब कुछ सामान्य हो जाएगा और हम पहले की तरह अपनी जिंदगी में लौट जाएंगे अपने पहाड़ों की गोद में,सुनिये अपने घर -गाँव से दूर गिरीश पंतवाल जी के स्वर में अपनी मिट्टी की यादों में डूबा हुआ ये भावपूर्ण “थड्या” गीत